मेघ घन व्योम पर गड़गड़ाने लगे ,
हूक उठने लगी, उर में अन्दर कहीं,
तार मन के कहीं झनझनाने लगे .
लोग कहते हैं ऋतुराज में मद बढ़े,
जब वसंती पवन का नशा सिर चढ़े,
किन्तु हमको तो सावन करे बावरा ,
उनकी रह-रह के बस याद आने लगे.
मैं यहाँ, वो वहां, वो वहां मैं यहाँ ,
मन का पपिहा करे पी कहाँ-पी कहाँ,
दिन तो टल जाए ऐसे या वैसे मगर,
रात बैरन सी बनकर सताने लगे.
फिर किसी काम में मन न लगता कहीं,
लोग पूछें कि क्या कष्ट, क्यों अनमनी,
किसको कैसे मैं समझाऊं इस रोग को,
कह गए नेत्र सब, डबडबाने लगे.
शाबाश- कविता में कवि की अपनी व्यथा स्पष्ट दिखाई दे रही है. रचना वास्तव में प्रशंसनीय है. मेरी शुभकामनाएं.
ReplyDeleteलोग कहते हैं ऋतुराज में मद बढ़े,
ReplyDeleteजब वसंती पवन का नशा सिर चढ़े,
किन्तु हमको तो सावन करे बावरा ,
उनकी रह-रह के बस याद आने लगे...
अंतर्मन से ब्यक्त कि गयी कविता...बहुत सुन्दर ..शुभकामनाएं
मेरे ब्लाग में स्नेह प्रेषित करने हेतु कोटि कोटि अभिनन्दन ..शुभकामनाएं ..आता रहूँगा पुनः सादर !!!
ReplyDeleteगहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति ... हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रवाहमय रचना।
ReplyDeleteशुरुआत अच्छी रचना से की है ।
ReplyDeletepehli bar apke blog per aye hai sabhi rachnayen sunder hai........
ReplyDeleteBahut hi achchhi lagi aapki kavita . prabhav chhodrti hui...
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