Tuesday 26 July 2011

समां भी क्या सुहाना है.

भरे घट, मेघ का सावन में आना क्या सुहाना है,
ये शीतल मंद झोंकों का समां भी क्या सुहाना है.

पपीहा, दादुरों के वाद्य के संग कोकिला के स्वर, 
ये रिमझिम मेह की बूँदें, ये मौसम आशिकाना है.
तपी धरती खिली  फिर से, तपन से भी मिली राहत,
ये बारिश में बहकना और नहाना, क्या सुहाना है.

सजी मेहँदी,खिले गजरे,सजे झूमर, बजे पायल, 
वो गोरी के दमकते भाल की बिंदिया करे घायल.
गगन को चूमती पेंगों के संग-संग गीत सावन के ,
ये झूलों पर लहरती चूनरों का रंग सुहाना है.

ये पोखर झील नदियाँ, ताल भी गाते दिखें फिर से,
ये सबकी चाह सावन मेघ बरसे, झूम के बरसे. 
ये धानी ओढ़  चूनर स्वागतम कहती फिज़ा सारी,
प्रकृति से वर्षा रानी का मिलन ये क्या सुहाना है.

Saturday 23 July 2011

जब बादलों ने किलोलें भरीं

नभ में जब बादलों ने किलोलें भरीं ,
मेघ घन व्योम पर गड़गड़ाने लगे ,
हूक उठने लगी, उर में अन्दर कहीं,
तार मन के कहीं झनझनाने लगे .

लोग कहते हैं ऋतुराज में मद बढ़े, 
जब वसंती पवन का नशा सिर चढ़े, 
किन्तु हमको तो सावन करे बावरा ,
उनकी रह-रह के बस याद आने लगे.

मैं यहाँ, वो वहां, वो वहां मैं यहाँ ,
मन का पपिहा करे पी कहाँ-पी कहाँ,
दिन तो टल जाए ऐसे या वैसे मगर,
रात बैरन सी बनकर सताने लगे.

फिर किसी काम में मन न लगता कहीं,  
लोग पूछें कि क्या कष्ट, क्यों अनमनी, 
किसको कैसे मैं समझाऊं इस रोग को, 
कह गए नेत्र सब, डबडबाने लगे.