Saturday 23 July 2011

जब बादलों ने किलोलें भरीं

नभ में जब बादलों ने किलोलें भरीं ,
मेघ घन व्योम पर गड़गड़ाने लगे ,
हूक उठने लगी, उर में अन्दर कहीं,
तार मन के कहीं झनझनाने लगे .

लोग कहते हैं ऋतुराज में मद बढ़े, 
जब वसंती पवन का नशा सिर चढ़े, 
किन्तु हमको तो सावन करे बावरा ,
उनकी रह-रह के बस याद आने लगे.

मैं यहाँ, वो वहां, वो वहां मैं यहाँ ,
मन का पपिहा करे पी कहाँ-पी कहाँ,
दिन तो टल जाए ऐसे या वैसे मगर,
रात बैरन सी बनकर सताने लगे.

फिर किसी काम में मन न लगता कहीं,  
लोग पूछें कि क्या कष्ट, क्यों अनमनी, 
किसको कैसे मैं समझाऊं इस रोग को, 
कह गए नेत्र सब, डबडबाने लगे.

8 comments:

  1. शाबाश- कविता में कवि की अपनी व्यथा स्पष्ट दिखाई दे रही है. रचना वास्तव में प्रशंसनीय है. मेरी शुभकामनाएं.

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  2. लोग कहते हैं ऋतुराज में मद बढ़े,
    जब वसंती पवन का नशा सिर चढ़े,
    किन्तु हमको तो सावन करे बावरा ,
    उनकी रह-रह के बस याद आने लगे...
    अंतर्मन से ब्यक्त कि गयी कविता...बहुत सुन्दर ..शुभकामनाएं

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  3. मेरे ब्लाग में स्नेह प्रेषित करने हेतु कोटि कोटि अभिनन्दन ..शुभकामनाएं ..आता रहूँगा पुनः सादर !!!

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  4. गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति ... हार्दिक बधाई.

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  5. बहुत सुंदर प्रवाहमय रचना।

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  6. शुरुआत अच्छी रचना से की है ।

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  7. pehli bar apke blog per aye hai sabhi rachnayen sunder hai........

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  8. Bahut hi achchhi lagi aapki kavita . prabhav chhodrti hui...

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